KhabarMantra: एक नई रिसर्च में यह पाया गया है कि हमारा दिमाग कैसे यह तय करता है कि जो हम देख रहे हैं वह असली है या केवल हमारी कल्पना है. यह अध्ययन ‘न्यूरॉन’ नाम की प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है और यह मानसिक बीमारियों को समझने में मदद कर सकता है, खासकर उन बीमारियों में जिनमें व्यक्ति कल्पना और हकीकत में अंतर नहीं कर पाता. जैसे कि सिज़ोफ्रेनिया और बायपोलर डिसऑर्डर की अवस्था में व्यक्ति अक्सर भ्रमित रहता है और काल्पनिक चीजों को भी सच मान लेता है.
‘फ्यूसीफॉर्म गाइरस’ की भूमिका
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया कि दिमाग का एक हिस्सा, जिसे ‘फ्यूसीफॉर्म गाइरस’ कहा जाता है, इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. यह हिस्सा सिर के दोनों ओर, कनपटी के पीछे होता है और जो कुछ हम देख रहे होते हैं, उसे पहचानने में हमारी मदद करता है. वैज्ञानिकों ने 26 लोगों पर एक प्रयोग किया, जिसमें उन्हें सीढ़ियों की तस्वीरें दिखाई गईं और उनसे पूछा गया कि उनमें कोई खास पैटर्न (जैसे झंझरी की आकृति) है या नहीं. कुछ तस्वीरों में वह पैटर्न सच में मौजूद था, जबकि कुछ में नहीं. इसके बाद प्रतिभागियों से कहा गया कि वे अपने मन में वैसा ही पैटर्न कल्पना करें और बताएं कि वे उसे कितनी स्पष्टता से देख पा रहे हैं.
रिसर्च में पाया गया कि जब प्रतिभागियों ने मन में जिस पैटर्न की कल्पना की वह असली पैटर्न से मिलता-जुलता था और उन्होंने बताया कि वे उसे साफ-साफ देख पा रहे हैं, तो वे यह मान बैठे कि उन्होंने सच में वह पैटर्न देखा—even जब वह असल में था ही नहीं। यानी उन्होंने अपनी कल्पना को हकीकत समझ लिया. इस प्रयोग के दौरान प्रतिभागियों के दिमाग की fMRI स्कैनिंग की गई, जिससे यह पता चला कि जब फ्यूसीफॉर्म गाइरस में गतिविधि अधिक होती है, तो लोगों को लगता है कि उन्होंने कोई चीज वाकई देखी है. सामान्य तौर पर कल्पना करते समय यह हिस्सा कम सक्रिय होता है, जिससे हमारा दिमाग हकीकत और कल्पना में फर्क कर पाता है. लेकिन जब कोई व्यक्ति बहुत गहराई से और स्पष्टता से कल्पना करता है, तो यही हिस्सा ज्यादा सक्रिय हो जाता है और भ्रम पैदा हो सकता है.
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रिसर्च का निष्कर्ष
इस रिसर्च का निष्कर्ष यह है कि हमारा दिमाग असली और काल्पनिक अनुभवों के बीच अंतर करने के लिए विशेष तरीकों से काम करता है. लेकिन जब कल्पना बहुत तीव्र हो जाती है, तो वह हकीकत जैसी लग सकती है. यह अध्ययन मानसिक बीमारियों को बेहतर तरीके से समझने और उनके इलाज में नई दिशा दे सकता है. सीधे शब्दों में कहें तो, जब हमारे “मन की आंखें” कुछ बहुत स्पष्ट देखती हैं, तो वह कल्पना भी असल लग सकती है.












