50 Years of Emergency— आज से ठीक 50 साल पहले, 25 जून 1975 की रात भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक ऐसा अध्याय जुड़ा, जिसे आज भी भय, दमन और संवैधानिक मूल्यों के संकट के रूप में याद किया जाता है. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सिफारिश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने आधी रात को देश में आपातकाल (Emergency) की घोषणा कर दी. यह स्वतंत्र भारत का पहला और सबसे विवादित आपातकाल था.
क्यों लगी थी इमरजेंसी?
12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार दिया था. कोर्ट ने चुनावी भ्रष्टाचार के आरोपों को सही ठहराया और उनके लोकसभा चुनाव को रद्द कर दिया. इससे सरकार की वैधता पर संकट खड़ा हो गया. सरकार ने इस फैसले को एक राजनीतिक षड्यंत्र बताया और देश में अराजकता की आशंका जताते हुए 25 जून की रात इमरजेंसी लागू कर दी.
26 जून की सुबह: जब देश ठहर गया
26 जून 1975 की सुबह जब लोगों को आपातकाल लागू होने की जानकारी मिली, तो पूरा देश स्तब्ध रह गया. विपक्ष के लगभग सभी बड़े नेता — जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, राज नारायण जैसे नाम — रातोंरात गिरफ्तार कर लिए गए. इस दौरान आम जनता, खासकर छात्र और युवा वर्ग में आक्रोश फूट पड़ा.
छात्र आंदोलन और पुलिस से भिड़ंत
जेपी आंदोलन से जुड़े युवा नेता अशोक वर्मा उस दौर के अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि 18 वर्ष की उम्र में वे झारखंड (तब बिहार का हिस्सा) के झुमरीतिलैया में छात्र आंदोलन का हिस्सा बने. 100-150 छात्रों ने प्रदर्शन करते हुए तिलैया थाने की ओर कूच किया, जहां पुलिस से भिड़ंत हुई और थाने में आग लगा दी गई. इसके बाद पुलिस ने लाठीचार्ज किया और प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी शुरू हुई.
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डर का दौर: घरों में दुबकने लगे लोग
Emergency के दौरान कोई आधिकारिक कर्फ्यू नहीं था, लेकिन दहशत का आलम ऐसा था कि लोग शाम होते ही अपने घरों में कैद हो जाते थे. राजनीतिक चर्चाएं पूरी तरह बंद हो चुकी थीं. अशोक वर्मा 30 जून 1975 को गिरफ्तार किए गए. उन्हें ‘Defence of Rule’ (DIR) के तहत जेल भेजा गया. एक पुलिस अधिकारी ने सहानुभूति दिखाते हुए उनके पिता का नाम गलत लिख दिया ताकि कोर्ट में पहचान न हो पाए और जमानत जल्दी मिल सके.
जनता में भय और अलगाव
आपातकाल के समय आंदोलनकारियों से जुड़ना आम लोगों के लिए जोखिम भरा था. सीआईडी के डर से लोग राजनीतिक कैदियों से मिलना भी नहीं चाहते थे. अशोक वर्मा बताते हैं कि जमानत पर रिहा होने के बाद जब वे पटना में एक रिश्तेदार के घर शरण लेने गए, तो उन्हें दरवाजे से ही भगा दिया गया. कुछ पैसे लेकर वे शहर के होटलों में छिपते रहे, लेकिन 18 मार्च 1976 को एक प्रदर्शन के दौरान दोबारा गिरफ्तार हो गए.
हजारीबाग जेल: आंदोलनकारियों की गिरफ्त
Emergency के दौरान हजारीबाग जेल में करीब 600 आंदोलनकारी बंद थे. इनमें जेपी, जॉर्ज फर्नांडिस, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गज नेता भी शामिल थे. अशोक वर्मा बताते हैं कि जेल में विचारधाराओं का समागम होता था — आरएसएस, जमाते इस्लामी और अन्य संगठनों के लोग एक साथ बंद थे और विचारों का आदान-प्रदान होता था.
जेल में आंदोलनकारियों को शौचालय साफ करने का काम करना पड़ता था क्योंकि उस दौर में सैप्टिक टैंक नहीं हुआ करते थे. दलित और आदिवासी कैदियों को जबरन सफाई करने को मजबूर किया जाता था, जिसे रोकने के लिए आंदोलनकारियों ने यह काम खुद करने का फैसला लिया.
Emergency की समाप्ति
18 जनवरी 1977 को आपातकाल समाप्त हुआ और देश में चुनाव की घोषणा की गई. उस चुनाव में कांग्रेस को करारी हार मिली और जनता पार्टी की सरकार बनी. इमरजेंसी के 21 महीनों ने भारतीय लोकतंत्र को गहरे झकझोरे दिए, लेकिन इसी दौर ने लोकतंत्र की अहमियत को भी उजागर किया.







