मदर इंडिया की कालजयी छवि प्राप्त नर्गिस को इस मुकाम पर पहुंचाने में केवल एक ही हाथ था और वह था उनकी मां जद्दनबाई का। पुरुष प्रधान समाज में उन्होंने मेहनत कर अपने बल पर अपनी बेटी को इस मुकाम तक पहुंचाया। इलाहाबाद में 1892 में पैदा हुई जद्दनबाई हिंदू मां दिलीपा और मुस्लिम पिता मियांजान की संतान थीं। उन्होंने अपने हुनर को इतना निखारा कि वह उस समय की महफिलों की शान बन गईं। यह राजा-रजवाड़ों का दौर था जहां मनोरंजन के नाम पर संगीत और नाच की महफिलें लगा करती थीं और उसमें अमीर राजा, व्यापारी भरपूर पैसे लुटाया करते थे।
जद्दनबाई एक दबंग और खुद्दार औरत थीं और सुरीली आवाज की मालकिन थीं। उन्हें कुछ खास महफिल में गाने के निमंत्रण मिलते थे और उनकी मशहूरी दूर-दूर तक फैल गई थी। खूबसूरत चेहरे और लंबे घने काले केशों वाली जद्दनबाई बहुत दिलकश थीं। गोरा रंग उन्होंने अपनी वालिदा से विरासत में पाया था। अपने को हुनरमंद बनाने के लिए जद्दनबाई ने ठुमरी, दादरा, गजलें और यहां तक कि पंजाबी लोकगीत सीखना भी शुरू कर दिया था।
जद्दनबाई ने बनारसी ठुमरी के स्तंभ उस्ताद मोएजुद्दीन खान से संगीत की शिक्षा पाई । वह एक लाजवाब और कायदे कानून वाले उस्ताद थे क्योंकि उनकी देखरेख में जद्दनबाई चोटी की गायिका बनकर उभरीं । उनकी आवाज परिपक्व, गहरी और सुरों पर उनकी पकड़ अदभुत थी, चाहे ब्रजभाषा का गीत गाती हों या गालिब की गजल । उनकी आवाज बेगम अख्तर के लिए प्रेरणा थी। जद्दनबाई ने अपना पहला प्रोग्राम बनारस में ही किया था और उनके सबसे पहले प्रशंसक थे बनारस के रईस नरोत्तमदास खत्री जो बच्चू भाई के नाम से जाने जाते थे।
इस शादी से उनका पहला बेटा अख्तर हुसैन पैदा हुआ। उनकी दूसरी शादी थी मास्टर इरशाद हुसैन जो मीर खान के नाम से भी जाने जाते थे और जद्दनबाई के लिए हारमोनियम बजाते थे। इनसे उनकी संतान पैदा हुई अनवर हुसैन और फिर दोनों जुदा हो गए। इसके बाद जद्दनबाई लखनऊ चली गई और फिर वहां से कलकत्ता । लखनऊ आना उनकी जिंदगी में एक नया मोड़ साबित हुआ। यहां उनकी मुलाकात रावलपिंडी से आए और डॉक्टरी पढ़ने के लिए विदेश जाने वाले युवा से हुई जिन्होंने उनसे शादी का प्रस्ताव रखा। जद्दनबाई ने इसके लिए उनके माता-पिता की अनुमति चाही तो वे वापस रावलपिंडी लौट गया। इस बीच जद्दनबाई कलकत्ता चली आईं।
यहां कुछ समय बाद फिर वह युवा पहुंचा उसका नाम था उत्तमचंद मोहन या मोहन बाबू। प्यार में अपना नाम बदलकर अब्दुल रशीद बन गया और 1928 में दोनों ने निकाह कर लिया । उनके धर्म परिवर्तन की रस्म मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने संपन्न कराई थी। तब जद्दनबाई 32 साल की थीं और मोहन बाबू उनसे 4 साल छोटे थे। 01 जून 1929 को कलकत्ता में जद्दनबाई ने एक बेटी को जन्म दिया, जिसके बचपन का नाम था बेबी रानी। वैसे हिंदू और मुस्लिम रिवाजों के अनुसार उसके दो अन्य औपचारिक नाम भी रखे गए तेजेश्वरी और फातिमा। यही बालिका आगे चलकर हिंदी सिनेमा की प्रसिद्ध तारिका नर्गिस बनीं।
पहले इस परिवार ने किसी इज्जतदार धंधे में पैर जमाने की कोशिश की लेकिन विफल होने पर जद्दनबाई को अपने नाच गाने के हुनर पर ही विश्वास करके काम करना पड़ा । इस बीच हुआ यह कि मूक फिल्में बनना शुरू हो गई थीं और ज्यादातर फिल्मों में तवायफों को ही काम मिल रहे थे । लाहौर फिल्मों का एक बड़ा केंद्र बनने लगा था। 1928 में अब्दुल रशीद करदार ने यूनाइटेड प्लेयर्स कॉरपोरेशन की स्थापना कर फिल्में बनाना शुरू किया तो जद्दनबाई को परिवार समेत लाहौर बुला लिया और उनके बेटे अनवर को भी काम-धंधे में लगाया। अभिनेत्री के रूप में जद्दनबाई की पहली फिल्म थी-राजा गोपीचंद (1933)। लाहौर में उन्होंने मोती गिडवानी की फिल्म ‘इंसान या शैतान’ में भी काम किया, लेकिन बात बनी नहीं।
इस बीच इम्पीरियल स्टूडियो के मालिक आर्देशिर ईरानी ने जद्दनबाई को बंबई बुला लिया। नानूभाई वकील द्वारा निर्देशित फिल्म ‘सेवा सदन'(1934) में जद्दनबाई ने उस दौर की मशहूर तारिका जुबैदा के साथ अभिनय किया। जद्दनबाई, फातिमा बेगम और जुबैदा की जीवनशैली से बहुत प्रभावित थीं और अपनी इच्छाओं को भी वैसे ही साकार करना चाहती थीं। 1934 में जद्दनबाई ने पांच साल की बेबी रानी (नर्गिस)को फिल्म ‘नाचवाली’ में प्रस्तुत किया। मैरीन ड्राइव के शानदार फ्लैट में रहने वाली जद्दनबाई के पति मोहन बाबू कोई काम नहीं करते थे, इसलिए बेटे-बेटियों का भविष्य संवारने के लिए दबंग जद्दनबाई को ही पहल करना पड़ी।
साल 1936 में उन्होंने संगीत मूवीटोन नामक कम्पनी की स्थापना की। अपने बच्चों को लेकर ही उन्होंने लगातार पांच फिल्में बनाईं और महिला फिल्मकारों की पंक्ति में अपना नाम दर्ज कराया। ये फिल्में थीं- ‘तलाश-ए-हक’, ‘हृदय-मंथन’, ‘मैडम फैशन’, ‘जीवन-स्वप्न’ और ‘मोती का हार, जिनके सारे पक्षों का काम स्वयं जद्दन ने संभाला। कहानी और संवाद लिखे। निर्माण और निर्देशन किया। संगीत दिया और अभिनय भी किया। उन्होंने अपने बेटी को हिंदी और अंग्रेजी की तालीम दिलाई और उसे तराशकर हीरा बना दिया। उनका निधन 08 अप्रैल, 1949 को हुआ।
चलते-चलते
जद्दनबाई ने अपने घर के दरवाजे सबके लिए खोल रखे थे। हर वह आदमी जो सिनेमा में हाथ आजमाना चाहता, जद्दनबाई के घर जरूर आता था। वह बिना किसी लालच के जरूरतमंदों की मदद करती थीं। अपनी मां, तीन बच्चों और पति के अलावा उनका घर मेहमानों से भरा रहता। शातो मरीन, जिस इमारत में आखिर तक रही, जहां उनके नाती-पोते अभी तक रहते हैं, बंबई के समुद्र तट पर कला का बेजोड़ नमूना है, जो बड़े-बड़े कमरों वाले फ्लैटों का पांच मंजिला बंगला है। उनके समय में सभी कमरे भरे रहते और अगर फिर भी कोई आ जाता तो उसके सोने के लिये बरामदे में चारपाई डाल दी जाती थी।
(लेखक, वरिष्ठ कला-संस्कृति एवं फिल्म समीक्षक हैं।)