लातेहार। पूरे झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल, उतर प्रदेश समेत कई प्रदेशों में आस्था का प्रतीक लातेहार जिले के चंदवा प्रखण्ड के नगर ग्राम स्थित प्राचीन प्रसिद्ध मां उग्रतारा नगर भगवती मंदिर में 16 दिवसीय शारदीय दशहरा पूजा की अनुठी परंपरा सदियों से चली आ रही है। इस मंदिर की खास बात यह है कि यहां पर 16 दिवसीय शारदीय पूजा आयोजित होती है जिसमें आस्था का जन सैलाब उमड़ता है। 8 अक्टूबर रविवार अश्विन कृष्ण पक्ष नवमी तिथि को प्रात: 7 बजे अष्टादशभुजा प्रथम कलश स्थापना के साथ हीं उक्त मंदिर में शारदीय पूजा अनवरत जारी है। शारदीय दशहरा पूजा के शुरू होते हीं चंदवा समेत लातेहार जिला व झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश समेत देश के विभिन्न राज्यों से मां के भक्तों का आगमन बढ़ काफी बढ़ गया है।
मनोकामना पूर्ति को श्रद्धालु माता को चढ़ातें है फूल, फूल गिरने पर कामना पूर्ण होने का मिलता है संकेत मंदिर के सेवायत मुंतजिमकार पंडित गोविंद बल्लभ मिश्र ने बताया कि सुरम्य पहाड़ियों से आच्छादित हरितीमाओं के गोद में प्रकृति की लावण्य छटाओं से विभूषित झारखंड प्रांत के लातेहार जिलांतर्गत अवस्थित नगर का माँ उग्रतारा देवी मंदिर अपने अद्भुत महात्म्य के कारण पूरे प्रांत के लोगों की श्रद्धा का केंद्र है। देवी की इस अद्भुत महिमा से अभिभूत सभी सम्प्रदायों के लोग अपनी मनोकामना प्रश्नों के उत्तर तथा मनौती के लिए यहां आते हैं, इस जाग्रत सिद्ध स्थल में देवी की महिमा स्पष्ट परिलक्षित होती है। मनोकामना के पूर्णता या अपूर्णता की जानकारी हेतु देवी की गद्दी पर प्रत्येक कामना के लिए ग्यारह फूल रखे जाने का विधान है, फूलों का स्वयंमेव गद्दी से नीचे गिरना कामना पूर्ण होने का संकेत समझा जाता है। मंदिर की प्राचीनता एवं इतिहास वैसे तो मंदिर का कोई लिखित इतिहास उपलब्ध नहीं है, परन्तु मंदिर के पूजा प्रयुक्त हस्त लिखित पुस्तक मंदिर की प्राचीनता सिद्ध करती है।
शारदीय नवरात्र पूजा पद्धति जो दूसरी बार लिखी गई है, में विक्रम संवत सन 1607 ई) अंकित है, स्पष्ट है कि इससे पूर्व की पुस्तक भी काफी प्राचीन रही होगी। यहां की पूजा पद्धति है खास देवी की इस मंदिर में पकवान या लड्डू का भोग सर्वथा वर्जित है। इस मंदिर में कार्य हेतु नियुक्त व्यक्ति द्वारा ही निर्मित पकवान भोग चढ़ाए जा सकते हैं। देवी के प्रसाद के स्वरूप मिश्री, गुड़, एवं फल अर्पित किए जा सकते हैं। मंदिर की दैनिक पूजा सूर्योदय के एक घंटे पश्चात देवी श्रृंगार एवं आरती से प्रारंभ होती है एवं दोपहर में कच्ची भोग के पश्चात देवी शयन करती हैं। शयन के दौरान मंदिर के पट बंद कर दिए जाते हैं एवं शाम में सूर्यास्त के पूर्व थोड़ी देर पहले संध्या आरती के लिए मंदिर के पट खोल दिए जाते हैं तथा आरती के पश्चात बंद हो जाते हैं।
मंदिर में रविवार एवं भाद्रपद मास को छोड़कर सभी दिन बकरों की बलि चढ़ाई जाती है। प्रतिवर्ष होती है 16 दिवसीय शारदीय पूजा, दी जाती है विशेष बलि इस मंदिर की विशेष बात यह है कि यहां प्रतिवर्ष अश्विन कृष्ण पक्ष नवमी से शुक्ल पक्ष विजयादशमी तक धूमधाम से शारदीय नवरात्र की पूजा संपन्न होती है। उक्त अवसर पर मंदिर की शोभा देखते बनती है, शारदीय नवरात्र पूजा में बकरों की बलि के अतिरिक्त भैंसें (काडो) एवं मछली बलि का भी विधान है। विशिष्ट महात्म्य से परिपूर्ण महाविद्या के इस मंदिर में फूलों के आश्चर्यजनक ढंग से गिरने तथा मनोकामना पूर्ति के बीच अटूट संबंध किसी नास्तिक के हृदय में भी आस्तिकता की भावना जागृत करने में सक्षम है।