बेगूसराय।ओडिशा के बालासोर के समीप शुक्रवार की देर शाम हुए भीषण रेल हादसे से पूरा देश सदमे में है। इस हादसे में अब तक 237 लोगों के मरने एवं करीब नौ सौ लोगों के घायल होने की पुष्टि हुई है। रेस्क्यू अभियान जारी है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी घटनास्थल पर पहुंचे है।
इस घटना की चर्चा देश ही नहीं विदेशी मीडिया में भी हर ओर हो रही है। कहा जा रहा है कि यह भारत की सबसे बड़ी रेल दुर्घटना है। लेकिन भारत की सबसे बड़ी और विश्व की दूसरी बड़ी रेल दुर्घटना छह जून 1981 को बिहार में हुई थी। जब खगड़िया जिले में स्थित रेलवे पुल संख्या-51 से पैसेंजर ट्रेन की आठ बॉगी बागमती नदी में समा गई थी। गैर आधिकारिक तौर पर दो हजार से अधिक लोग मारे गए थे।
जिसमें से सात डब्बे का घटना के 42 साल बाद भी कोई पता नहीं चल सका है। इस हादसे में करीब 250 लोगों के शव पांच दिनों के सघन अभियान में बागमती नदी से निकाले गए। प्रशासन ने मात्र आठ सौ लोगों के मौत की पुष्टि की थी। लेकिन प्रत्यक्षदर्शी का कहना है कि ट्रेन पूरी तरह से खचाखच लोगों से भरी हुई थी और दो हजार से भी अधिक लोगों की मौत हुई थी। जब डब्बे का ही पता नहीं चला तो शव निकालने और गिनती का सवाल कहां है।
बताया जा रहा है कि शादी और बरसात का समय आ गया था। उस समय यातायात का सबसे बड़ा साधन रेल ही था। समस्तीपुर से रोसड़ा-हसनपुर-खगड़िया के रास्ते सहरसा जाने वाली 416 डाउन पैसेंजर ट्रेन शनिवार छह जून को अपने निर्धारित समय से करीब 30 मिनट विलंब से चल रही थी। बदला घाट स्टेशन पर करीब तीन बजे ट्रेन रुकी और दो मिनट के बाद धमारा घाट की ओर चल दी।
धमारा घाट स्टेशन से पहले बागमती नदी पर स्थित पुल संख्या-51 पर जब ट्रेन पहुंच रही थी तो कुछ गाय-भैंस ट्रैक पर आ गए। ड्राइवर ने हल्का ब्रेक लगाने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली और ट्रेन आगे बढ़ गई। इसी बीच भीषण आंधी-तूफान और बारिश आ गया तो यात्रियों ने खिड़की-दरवाजे बंद कर लिए। ट्रेन काफी धीमी गति से पुल पर आगे बढ़ रही थी।
इसी बीच अचानक पूरा ट्रेन डगमगाया। देखते ही देखते सात डब्बे बागमती नदी के बीच धारा में समा गए। एक डब्बा नदी के किनारे लटक गया, जबकि इंजन और इंजन के साथ वाला डब्बा सही सलामत रहा। कुछ मिनटों में ही कोहराम मच गया, मौके पर आसपास के लोग जुटे। लेकिन कहा जाता है कि आसपास के लोगों ने दुर्घटना पीड़ितों को बचाने के बदले उनके साथ जमकर लूटपाट मचाया।
घटना की सूचना मिलते ही रेल प्रशासन और स्थानीय प्रशासन में हड़कंप मच गया। राहत और बचाव अभियान शुरू किया गया। पांच दिनों तक चले राहत और बचाव अभियान में करीब 250 शव निकाले गए। लेकिन बीच नदी में गिरे सात डब्बे का कोई पता नहीं चल सका। कहा जाता है कि बारिश के समय में नदी भरा हुआ था और अपने बेग के कारण चर्चित इस गहरी नदी में गिरे डब्बे आगे बढ़ते चले गए तथा पानी के सतह में धंस जाने के कारण उनका कोई पता नहीं चल सका।
बाद में नदी की बदलती धाराओं ने उसे बालू के अंदर समाहित कर लिया। इस घटना में सैकड़ों परिवार पूरी तरह से उजड़ गए। कई लोग तो पूरे परिवार के साथ थे जो काल के गाल में समा गए। आज भी छह जून 1981 का वह दिन याद आते ही लोग सिहर उठते हैं। जब आंधी में कोई पेड़-पौधे और घर नहीं गिरे, लेकिन पूरी ट्रेन नदी में समाहित हो गई। छह जून से मात्र चार दिन पहले उड़ीसा में जब बड़ा हादसा हुआ तो एक बार फिर बिहार वासियों के जेहन में उस भीषण घटना की यादें ताजी हो गई।