एनके मुरलीधर
जहं जहं चरण पड़े गौतम के, तिक न्यात हन्ह की विश्व विख्यात पुस्तक है। मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं कि बुद्ध को जानकर यह पुस्तक लिखी गयी है। उस रात सिद्धार्थ गंभीर और गुमशुम थे। पूरी चांदनी थी। महिनों से यशोधरा को लग रहा था कि सिद्धार्थ जो चाहते हैं वह मैं नहीं दे सकती। वह सिद्धार्थ को किसी भी हाल खुश देखना चाहती थी। उसने सेवक से कहा आज रात सबसे प्यारा घोड़ा तैयार रखना सिद्धार्थ आज अपनी सबसे प्रबल यात्रा पर निकलेंगे। हां तुम भी साथ जाना। वहां तक जहां से तुम्हें वे लौटा न दें। फिर यशोधरा से सबसे श्वेत वस्त्र निकाले और उसे अपने कक्ष से बाहर रख दिया। यशोधरा के विशाल ह्दय ने जो सोचा था वैसा ही हुआ।
बुद्ध का मन वन गमन को तैयार था। वे एक बार अपने बेट राहुल और यशोधरा को देखना चाहते थे। यशोधरा की आंखें खुली थी और राहुल बेखबर नींद में थे। बुद्ध हिचकिचाये। फिर मन कड़ा कर कक्ष की ओर बढ़े। यशोधरा ने आखें बंद कर ली। बुद्ध ने दोनों को देखा। फिर मुड़ें और चल दिये। सेवक उनका सबसे प्रिय अश्व लेकर खड़ा था। अश्व हिनहिनाया। यह सुनकर लेटी यशोधरा उठी और बाहर भागी। बाहर निकल कर देखा सेवक और सिद्धार्थ अलग-अलग घोड़ें पर जा रहें है। यशोधरा के आंखों से आंसू की बूंद ढलक पड़ी। उसे पीछे छोड़ सिद्धार्थ जा चुके थे। इसी बीच राहुल रोने लगा और वह भागी-भागी कक्ष में आ गयी।
जो यह जानता है कि इस दुनिया से विदाई अनिवार्य है उसके मन में दूसरों के प्रति कटुता दूर हो जाती है, आसक्ति जैसी अग्नि नहीं रहती और द्वेष जैसा मल भी नहीं एकत्र होता है। इसी तरह यदि जीवन में अपरिग्रह (यानी जरूरत से ज्यादा संग्रह न करना) आ जाय तो लोग सुखी जीवन बिता सकेंगे। पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में धम्म पद में कहा गया है कि विजय से दूसरे के साथ वैर जन्म लेता है और पराजित आदमी दु:ख की नींद सोता है किंतु जो जय और पराजय दोनों से परे रहता है वह चैन से सुख की नींद सोता है। शांति से बड़ा कोई सुख नहीं होता : नत्थि संतिपरं सुखं । महात्मा बुद्ध की सीख है कि अक्रोध से क्रोध को, भलाई से दुष्ट को, दान से कंजूस को और सच से झूठ को जीतना चाहिए। चूँकि सबको अपना जीवन प्रिय होता है और सब जीव अपने लिए सुख की कामना करते हैं इसलिए महात्मा बुद्ध कहते हैं कि आदमी अपने ही तरह सबका सुख-दु:ख जान कर न तो खुद ही किसी को मारे और न दूसरों को किसी को मारने के लिए उकसाए।
जीवनचर्या पर महात्मा बुद्ध के विचार ध्यान देने योग्य हैं। वे संतोष को सर्वाधिक महत्व का बताते हैं और इच्छा, मोह, राग और द्वेष को सबसे बड़े दोषों के रूप में पहचान की है। वे कहते हैं कि मनुष्य को शीलवान, समाधिमान, उद्यमशील और प्रज्ञावान हो कर जीना चाहिए। वे सत्य को सबसे पहला धर्म कहते हैं और धर्म का आचरण निष्ठा से की हिदायत देते हैं।
अपने आपको जीतने वाला आत्म-जयी सबसे बड़ा विजेता होता है। जिसका चित्त स्थिर नहीं, जो सद्धर्म को नहीं जानता और जिसकी श्रद्धा डावाँडोल है, उसकी प्रज्ञा परिपूर्ण नहीं हो सकती। योग से प्रज्ञा की वृद्धि होती है । जिसे प्रज्ञा नहीं होती उसे ध्यान नहीं होता। जिसे ध्यान नहीं होता उसे प्रज्ञा नहीं होती।
Cheif Sub-Editor(Khabar mantra)