डॉ. रमेश ठाकुर
चोटी की प्रतियोगी परीक्षाएं अगर पास करनी हो, तो जेहन में अव्वल ख्याल राजस्थान का ‘कोटा शहर’ ही आता है। क्योंकि कोटा शहर शिक्षा का ‘महाकुंभ’ जो बन गया है। वहां से शिक्षा लेकर बच्चे अपने सपनों को पंख लगा रहे हैं। पर, दुर्भाग्य है कि ‘शिक्षा नगरी’ का खिताब हासिल कर चुका ये शहर गुजरे कुछ समय से ‘आत्महत्या’ के लिए चर्चाओं में हैं। हालात ऐसे बन गए हैं कि वहां चारों तरफ फैले अदृश्य मौत के खौफ ने बच्चों को भयभीत कर दिया है ।
डर के चलते अभिभावक अपने बच्चों को वापस बुलाने लगे हैं। डिप्रेशन में आकर 19-22 वर्ष आयु के छात्र मौत को गले लगा रहे। बीते आठ माह के भीतर 23 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। ये घटनाएं तत्कालिक नहीं है, सिलसिला सालों से बदस्तूर जारी है। कोटा में हर वर्ष लगभग 15 से 20 घटनाएं घटनाएं घट रही हैं। प्रत्येक सुसाइड की घटना में पुलिस अपनी जांच-पड़ताल के बाद एक ही तर्क देती है कि बच्चे पढ़ाई का दबाव झेल नहीं पाने के कारण ऐसा कदम उठाते हैं?
पुलिस-प्रशासन का तर्क कई मायनों में वाजिब भी दिखता है। अगर वास्तव में आत्महत्याओं का मूल कारण यही है, तो उसमें सीधे-सीधे शिक्षण संस्थाएं ही दोषी मानी जाएंगी। क्योंकि कोचिंग संस्थान अब छात्रों के बौद्धिक स्तर को ध्यान में रखकर शिक्षा ग्रहण नहीं करवाती। इतना प्रेशर डालती है कि अच्छे से अच्छा छात्र भी डिप्रेशन में चला जाए। बहरहाल, इस कृत्य में कोचिंग संस्थानों के साथ-साथ अभिभावक भी बराबर के भागीदार हैं। छात्रों पर दोनों का संयुक्त रूप से एक जैसा प्रेशर होता है।
ऐसी अनहोनी घटनाओं के पीछे मनोचिकित्सकों का मानना होता है कि बदलते दौर में जब बच्चों उम्र खेलकूद की होती है, तब उनके समक्ष गला-काट प्रतियोगी परीक्षाओं को पास करना, नार्मल स्कूलों की जगह कोचिंग संस्थानों के टफ स्टीड पैटर्न को झेलना, सामने वाले से बेहतर करने का घनघोर दबाव और उसके बाद शिक्षक-पेरेंट्स का बच्चों पर उम्मीद से ज्यादा उम्मीद करना? सही मायनों में देखें तो सुसाइड केसों के मूल और तात्कालिक कारण यही हैं। इन कारणों को शिक्षक-अभिभावक भलीभाँति जानते भी हैं, लेकिन इग्नोर कर देते हैं।
कोटा में छात्रों द्वारा लगातार आत्महत्याओं की घटना के बाद राज्य सरकार और स्थानीय शिक्षण संस्थाओं पर लापरवाही व रक्षा-सुरक्षा न करने के आरोप लग रहे हैं। आरोप लगने भी चाहिए? आखिर दोनों की सर्वप्रथम जिम्मेदारियां बनती हैं। हुकूमत और शिक्षण संस्थान आत्महत्या वाली घटनाओं से अपनी नजरें क्यों फेरती हैं? उसका भी कारण पानी की तरह साफ है। सरकार का टैक्स रूपी मुनाफा कमाना और शिक्षण संस्थाओं का छात्रों से मुंह मांगी फीस का सवाल जो होता है? आंकड़े दस्तीक करते हैं कि कोटा में सालाना 5 हजार करोड़ का शिक्षा के नाम पर बाजार होता है जिसमें सरकार को 700 करोड़ का टैक्स प्राप्त होता है।
प्रत्येक छात्र से एक लेकर तीन लाख फीस वसूली जाती है। ढाई से तीन लाख नए छात्र हर वर्ष कोटा पहुंचते हैं। कोटा में सरकार द्वारा 23 हॉस्टल पंजीकृत हैं, अपंजीकृतों की तादाद इससे कहीं ज्यादा है। दस हजार से ज्यादा कोचिंग संस्थाएं फैली हैं जो अपनी कमाई का एक तिहाई हिस्सा सरकार को देती हैं। इसके अलावा दूसरे तरीकों से पुलिस-प्रशासन, नगर निगम व अन्य विभागों को चढ़ावे के रूप में दिया जाता है।
कुल-मिलाकर शिक्षा की आड़ में धंधा कैसे पनपता है, उसका सजीव उदाहरण इस समय कोटा बना हुआ है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस वक्त करीब पांच लाख छात्र मेडिकल, जेईई, इंजीनियरिंग व अन्य विभिनन प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियां कर रहे हैं। लेकिन इनकी सुरक्षा पूरी तरह रामभरोसे है। अभी कुछ महीनों पहले दिल्ली के मुखर्जी नगर में दर्दनाक हादसा हुआ था। जहां, एक कोचिंग सेंटर में आग लग गई, छात्रों ने छतों से कूदकर अपनी जान बचाई। कोटा की तरह मुखर्जी नगर भी सिविल परीक्षाओं का गढ़ माना जाता है। उस घटना के बाद जांच हुई, तो पता चला कि वहां संचालित आधे से ज्यादा कोचिंग सेंटर तय मानकों के विद्वध चल रहे हैं। शासकीय-प्रशासनिक धरपकड़ हुई, तो पता चला कि ये खेल स्थानीय पुलिस और नगर निगम की मेहरबानी से होता था। एकाध महीने शासन स्तर पर कुछ सख्तियां-पाबंदियां हुई, लेकिन अब सब कुछ पहले जैसा है। कमोबेश, कोटा में भी कुछ ऐसा ही होगा।
कोटा सुसाइड घटनाओं की चर्चा पूरे देश में आग की तरह फैली हुई हैं। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए कोटा के ज्यादातर कोचिंग सेंटर इस समय छात्र-छात्राओं की मनोचिकित्सकों से काउंसलिंग करवा रहे हैं। छात्रों को दुलार-प्यार रहे हैं, अच्छा खाना-पीना देने के साथ-साथ अच्छी देखरेख और संरक्षण सहूलियत संबंधी निगरानी कर रहे हैं। जो बच्चे पढ़ाई में थोड़े-बहुत कमजोर हैं, उनकी एक्सटृा क्लासेस आंरभ कर दी गई हैं। सवाल उठता है ये सब कब तक? क्या जब तक मौजूदा आत्महत्याओं का शोर रहेगा, या मीडिया-समाज में घटनाओं की चर्चा रहेगी, तभी तक? अगर ऐसा है, तो ऐसी प्रवृत्तियों और सोच से बाहर निकलना होगा। इस तरह के दिखावे की जगह कोई मुकम्मल उपाय करने की सख्त आवश्यकता है। ऐसा तभी संभव होगा, जब सरकारी डंडा चलेगा। सख्त नियम बनेंगे, ईश्वर न करें, अगर भविष्य में किसी कोचिंग सेंटर में इस तरह की घटना घटे, तो उसका जिम्मेदार भी वही सेंटर होगा? क्योंकि मां-बाप, घर-परिवार, प्रदेश से दूर छात्र की जिम्मेदारी उसी कोचिंग की होनी चाहिए, जहां बच्चा पढ़ता हो।
बहरहाल, कई मर्तबा ज्यादा दबाव में आकर कुछ छात्र बोलते भी हैं कि उक्त परीक्षा उनके बूते से बाहर है, नहीं कर पाएंगे? बावजूद इसके उन छात्रों पर कोचिंग सेंटरों का पढ़ने का जबरदस्त दवाब रहता है। तभी बच्चे खुद से हारकर आत्महत्या जैसे कदम उठाने पर मजबूर हो जाते हैं। निश्चित रूप से कोटा में खुल चुके कुकुरमत्तों की भांति अनगिनत कोचिंग शिक्षण संस्थाओं में अध्यनरत छात्र-छात्राओं की आत्महत्या की रहस्यमई घटनाओं ने ना सिर्फ उन अभिभावकों को अंदर तक झकझोरा है जिनके बच्चे वहां इस समय पढ़ रहे हैं, बल्कि समूचे हिंदुस्तान को सोचने पर विवश कर दिया है। कोटा में एकाध राज्यों के बच्चे नहीं पढ़ते, भारत के तकरीबन राज्यों से सालाना लाखों छात्र-छात्राएं इंजीनियरिंग, मेडिकल व सिविल सर्विसेज परीक्षाओं की कोचिंग लेने पहुंचते हैं। पर, ऐसा लगता है, जैसे इस शहर को किसी की नजर लग गई हो? तभी तो ‘शिक्षा की नगरी’ से फेमस कोटा अब ‘सुसाइड फैक्ट़ी’ कहलाने लगा है। किसी भी सूरत में कोटा शहर के माथे पर लगा ‘मौत का कलंक’ हटना चाहिए। जैसे भी हो, तत्काल प्रभाव से खुदकुशी के मामलों पर अंकुश लगाना चाहिए।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)