एनके मुरलीधर
नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद की शपथ लिए नौ वर्ष पूरे हो जाएंगे। इस पूरी अवधि के बारे में काफी कुछ कहा जा सकता है लेकिन कुछ बात है जो मोदी को अन्य लोगों से विशेषकर राहुल गांधी से बहुत आगे करती है। पहली, युद्ध। सन 1962-71 के बीच के तीन युद्धों के बाद कोई बड़ा युद्ध नहीं हुआ है। उन तीनों युद्धों की कीमत मुद्रास्फीति, मुद्रा संकट और मंदी के रूप में चुकानी पड़ी थी। मोदी के कार्यकाल में चीन के साथ हुए टकराव ने अर्थव्यवस्था पर असर नहीं डाला। सरकार हालात को लेकर आश्वस्त थी और उसने जीडीपी की तुलना में रक्षा आवंटन कम होने दिया।
दूसरा जोखिम है सूखा, जो मोदी सरकार के शुरूआती दो वर्षों में पड़ा। कृषि क्षेत्र में मूल्यवर्द्धन के बावजूद 2014-16 में कमोबेश कोई वृद्धि नहीं हुई। बाद के वर्षों में से अधिकांश वर्षों में प्राय: 4 फीसदी से अधिक की वृद्धि दर दर्ज की गई। हालांकि यह वृद्धि ज्यादातर पशुपालन और मत्स्यपालन की बदौलत हासिल हुई, न कि फसली खेती से। तथ्य तो यह है कि कृषि और संबद्ध गतिविधियों में खेती की हिस्सेदारी और जीडीपी में भी कृषि की हिस्सेदारी कम हुई है। ऐसे में आर्थिक गतिविधियों पर सूखे का असर भी पहले जैसा नहीं रहा। सूखे वाले दो वर्षों में औसतन 7.5 फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर्ज की गई जो मोदी के कार्यकाल के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनों में से है।
अतीत में अर्थव्यवस्था को बेपटरी करने वाला तीसरा कारक था तेल। तेल की बढ़ती कीमतों के कारण सन 1981 और 1991 में दो बार (इससे पहले 1966 में युद्ध के बाद) देश को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से आपातकालीन ऋण लेना पड़ा। तेल कीमतों के कारण ही सन 2013 में देश को उन पांच अर्थव्यवस्थाओं में शामिल किया गया था जो अपने विकास के लिए विदेशी पूंजी पर कुछ ज्यादा ही निर्भर थे। मोदी पर तकदीर मेहरबान रही क्योंकि उनके पद संभालते ही तेल कीमतों में भारी कमी आई। उनके पद संभालने के पहले के दो वर्षों में यह दर जहां 110 डॉलर प्रति बैरल थी, वहीं तब से यह दर 60-70 डॉलर प्रति बैरल के आसपास है। इससे कारोबारी संतुलन सुधरा, मुद्रास्फीति में कमी आई और सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों पर कर बढ़ाकर काफी नकदी बटोरी।
मोदी की ताकत क्या है? यह है उनकी ईमानदार छवि। कर्मठता। अब तक विपक्ष कोई भी भ्रष्टाचार मोदी या उनके मंत्रियों के उपर सिद्ध नहीं कर सका है। दूसरा खतरनाक मानसिकता भारतीय जनमानस का है जो ज्यादा इंतजार नहीं करता साथ ही विकास पर राजनीति सिर्फ कहने की बात है हर दल आज भी धर्म और जाति संप्रदाय की राजनीति ही कर रहा है ऐसे में मोदी का एजेंडा आज भी उतना ही मजबूत है।
क्या मोदी इससे उबर सकते हैं? हां, अगर वे यह दिखाते हैं कि वे केबिन में छिपकर मशविरा देने के बजाय जहाज को तूफान से निकाल सकते हैं। निर्णय तेज लेने के साथ एक राजनीतिक चतुराई दिखानी होगी जिसमें सभी को साथ लेकर चलने की स्थिति दिखनी चाहिए। सत्ता को ऐन-केन प्रकारेन हासिल करने का उनका सपना पश्चिम बंगाल की चुनाव में टूट चुका है और इसके पहले भी जहां हमारे क्षेत्रप मजबूत हैं वहां मोदी को शिकस्त ही मिली है। उनके पास मजबूत क्षेत्रिय नेताओं का अभाव है। इसका यह अर्थ नहीं की लोकसभा चुनाव में मोदी कमजोर पड़ रहें हैं।
2024 के लोकसभा के चुनाव में मुद्दा बेरोजगारी और महंगाई ही होगा लेकिन दस साल की सरकार से उम्मीद और नाउम्मीदगी के बीच यह चुनाव भारतीय जनमानस की होशियारी और एकजुटता की परीक्षा भी होगी।ऐसा नहीं है कि मोदी की लोकप्रियता बनी ही रहेगी लेकिन जिन उम्मीदों को लेकर वे पीएम बने उसे पूरा करने का प्रयास ही उनके जीवन राजनीतिक सार्थकता की बेहतरीन पारी होगी। वैसे भारतीय राजनीति में मोदीकीक लोकप्रियता कम होने वाली नहीं है इसे आप चुनावी जीत-हार से नहीं जोड़ सकते हैं।
ठीक एक वर्ष बाद 2024 के मई में फिर से एक सरकार बनेगी भारतीय लोकतंत्र मजबूत होगा। तय है कर्नाटक के हार का इस चुनाव पर कोई असर नहीं होगा। लोकप्रियता और विश्वसनीयता दो बात है और दोनों में पीएम मोदी अपनी पूरी टीम के साथ मेरे कहने का आशय केन्द्रीय मंत्रीमडंल से है पूरी तरह फिट हैं। कुछ बिंदुओं पर हम चर्चा कर सकते हैं कि जिन 225 लोकसभा सीटों पर भाजपा और कांग्रेस में सीधी टक्कर होगी वहां क्या होगा?नीतीश कुमार जैसे क्षेत्रप जो अपने राज्य में दस लोकसभा की सीट नहीं जीत सकते उनपर आम लोग राष्ट्रीय स्तर पर कितना भरोसा करेंगे?
छोटे क्षेत्रिय दलों के गठबंधन का मुखिया कांग्रेस होगी जिसका कई राज्यों में क्षेत्रिय दलों से टक्कर है ऐसे में कांग्रेस अपने को सिमटाने का जोखिम ले सकती है? बिहार, यूपी, बंगाल, तमिलनाडु, राजस्थान सहित एक भी राज्य ऐसा नहीं है जहां कांग्रेस लोकसभा में बहुत बेहतर कर सकती है? यह आज की स्थिति के अनुसारआकलन है।आम लोगों की सोच और कैडर के वोट के अतिरिक्त स्विंग वोट से ही भारतीय लोकतंत्र में चुनाव में परिवर्तन होता है जैसा कर्नाटक में हुआ। जेडीएस की पांच फीसदी वोट से ही कांग्रेस का बेड़ा पार हो गया। क्या ऐसी संभावना लोकसभा के चुनाव में बनते दिख रहा है।
आज भी शहरी मध्य वर्ग और युवा मोदी और भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हैं। केन्द्र सरकार महंगाई और सुरक्षा के मोर्चे पर बेतहर काम कर रही है।
विगत एक दशक में जो परिवर्तन आया है उसमें लोक सभा चुनाव में आम लोग राष्ट्रीय विषयों, राष्टवाद, अल्पसंख्यक सुरक्षा, रोजगार सहित गंभीर विषयों पर चिंतन करने लगे हैं। अगर भारतीय जन मानस क्षेत्रपों की खिचड़ी से उबे जिसकी संभावना अधिक है तो 2024 में आम जनता की राय केन्द्र की मजबूत, टिकाउ और भ्रष्टाचार मुक्त सरकार के पक्ष में ही जायेगी। भारतीय लोकतंत्र में चन्द्र बाबू नायडू, नीतीश कुमार, केजरीवाल, शरद पवार सहित क्षेत्रपों को अवसर देने का जोखिम शायद भारतीय जनमानस न उठाये जो बहुत मुखर होकर सोचती है और वोट करती है।