अजय कुमार शर्मा
भारतीय जनजीवन में फिल्मी गीतों की गहरी पैठ है। जीवन से जुड़ी कोई भी और कैसी भी घटना हो उसे गीत ही हमारे बीच सजीव और साकार करते हैं। धार्मिक अवसर हो या देशभक्ति का समय, हमारे त्योहार हों, जन्मदिन या फिर शादी-ब्याह की खुशियां हो, सबके लिए हमारे पास गीतों की भरमार है। इन गीतों के अनेक रचनाकारों में शैलेंद्र का नाम बिल्कुल अलग,अनूठा और सबसे लोकप्रिय रहा है। सरल और सहज भाषा में लिखे गए उनके गीत केवल मनोरंजन ही नहीं करते बल्कि जीवन से जुड़े गहरे संदेश भी देते हैं। यह वर्ष उनका जन्म शताब्दी वर्ष है।
शैलेंद्र का जन्म 30अगस्त, 1923 को पंजाब प्रांत के रावलपिंडी शहर (वर्तमान पाकिस्तान) में एक सामान्य परिवार में हुआ था। उनके पूर्वज बिहार के निवासी थे। शैलेंद्र (मूल नाम शंकर दास राव ) जब छह साल के थे तो पिता गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और उनकी फौज की नौकरी चली गई। घोर आर्थिक संकट से गुजरते हुए यह परिवार रावलपिंडी से मथुरा (उत्तर प्रदेश) आ गया। शैलेंद्र की प्रारंभिक शिक्षा यहीं हुई। आर्थिक स्थिति बेहतर न होने के कारण शैलेंद्र को मथुरा के रेलवे वर्कशॉप में कार्य करना पड़ा। यहीं से उनका ट्रांसफर बंबई (अब मुंबई) के रेलवे वर्कशॉप में हो गया। कविता का शौक उन्हें बचपन से ही था और युवा अवस्था से ही मथुरा और आसपास होने वाले कवि सम्मेलनों में वे भाग लेने लगे थे।
बंबई की रेलवे कालोनी में श्रमिक वर्ग के साथ रहते हुए उनका झुकाव वामपंथ की तरफ हुआ और वे भारतीय जन नाट्य संघ से जुड़ गए और उनके साथ काम करने लगे। मंचों पर उनकी कविताएं बड़े ध्यान से सुनी जाती थीं। ऐसे ही एक कवि सम्मेलन में उनकी कविता राज कपूर ने सुनी और उन्हें अपनी फिल्मों में गीत लिखने का निमंत्रण दिया, लेकिन स्वाभिमानी शैलेंद्र ने तत्काल उन्हें यह कहकर मना कर दिया कि वह फिल्मों के लिए गीत नहीं लिखते हैं।
आगे चलकर कुछ परिस्थितियां ऐसी हुईं कि उन्हें अपनी गर्भवती पत्नी के इलाज के लिए कुछ पैसों की जरूरत पड़ी। तब वह राज कपूर से पैसे मांगने गए। राज कपूर ने पैसे तो दे दिए लेकिन उनसे यह भी अनुरोध किया कि यदि वे उनकी निर्माणाधीन फिल्म बरसात के लिए दो गीत लिख दें तो उन्हें यह पैसे वापस करने की जरूरत नहीं है। शैलेंद्र ने गीत लिखे। पहला गीत था- बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम बरसात में… और दूसरा गीत था- पतली कमर है, तिरछी नजर है…। दोनों ही गीत अत्यंत लोकप्रिय हुए और बरसात की सफलता में इन गानों का महत्वपूर्ण योगदान रहा। उसके बाद तो उनकी फिल्मों में ख्याति और प्रतिष्ठा निरंतर बढ़ती गई । अपनी रेलवे की नौकरी छोड़कर वह फिल्मों के लिए गीत लिखने लगे। आरके फिल्म्स यानी राज कपूर के साथ उनका अटूट रिश्ता बना जो आजीवन बना रहा। इस तरह मुकेश, हसरत जयपुरी, शंकर जयकिशन के साथ उनकी बहुत प्यारी जोड़ी बनी और लोकप्रियता के चरम पर पहुंची।
18 वर्ष के अपने छोटे से फिल्मी करियर में उन्होंने कुल 173 हिंदी फिल्मों में 793 गीत लिखे । इसके अलावा 6 भोजपुरी फिल्मों में 37 और एक बंगाली फिल्म के लिए सिर्फ एक गीत लिखा। यह गीत हिंदी में ही था। मोहम्मद रफी की आवाज में रिकॉर्ड हुए इस गीत को बांग्ला फिल्मों के तत्कालीन सर्वाधिक लोकप्रिय युगल जोड़ी उत्तम कुमार व सुचित्रा सेन की उपस्थिति में फिल्माया गया था। इसका संगीत बंगाल के सुप्रसिद्ध संगीतकार नचिकेत घोष ने तैयार किया था। इस तरह उन्होंने कुल 180 फिल्मों में कुल 831 गीत लिखे। कुछ गैर फिल्मी गीत भी हैं जो रिकॉर्ड हुए थे पर फिल्मों में नहीं लिए जा सके।
उनके गीतों से सजी फिल्मों में प्रमुख हैं- आवारा, दो बीघा जमीन, श्री 420, जिस देश में गंगा बहती है, संगम, सीमा मधुमती, जागते रहो, गाइड, काला बाजार, जंगली, बूट पॉलिश, यहूदी, अनाड़ी, पतिता दाग,बंदिनी गुमनाम और तीसरी कसम आदि। उनकी अंतिम फिल्म सपना का सौदागर थी जिसमें उनका लिखा गया गीत था … तुम प्यार से देखो हम प्यार से देखें…। गीत लेखन के लिए उन्हें तीन फिल्म फेयर पुरस्कार मिले । पहला था यहूदी ( 1958) के गीत- यह मेरा दीवानापन है…दूसरा-सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी (अनाड़ी 1959) और फिर 1968 में ब्रह्मचारी फिल्म के गीत मैं गाऊं तुम सो जाओ…। तीसरी कसम फिल्म निर्माण के दौरान उन्हें गहरी हानि हुई और उससे ज्यादा मानसिक कष्ट। अपने लोगों के छल कपट से वह बहुत परेशान हो गए और 14 दिसंबर 1966 को हमारे बीच नहीं रहे। यह अजीब इत्तेफाक था कि उस दिन उनके सबसे प्रिय मित्र राज कपूर का जन्मदिन था।
चलते-चलते
लगातार गीत और उनकी तुकबंदी सोचने के कारण शैलेंद्र अक्सर कई जरूरी काम आदि भूल जाते थे…। एकबार तो वे अपनी पत्नी को ही भूल गए। हुआ यह कि सुंदरबाई हॉल में एक कार्यक्रम हुआ। कार्यक्रम खत्म हुआ तो उन्हें अपनी पत्नी की याद ही नहीं रही और वह लोकल ट्रेन में बैठकर सीधे घर पहुंच गए। उनकी पत्नी रात में किसी तरह उनके दोस्तों की सहायता से घर पहुंचीं। देखा वह आराम से सिगरेट पी रहे थे। उनको देखते ही बोले…मैं तुम्हें भूल आया शकुन, माफ करना। मगर मुझे यकीन था कि तुम किसी न किसी तरह घर पहुंच जाओगी।
(लेखक, वरिष्ठ कला-संस्कृति समीक्षक हैं।)