प्रयागराज महाकुंभ अलौकिक, दिव्य व भव्य है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कुछ दिन पहले मीडिया सेंटर का उद्घाटन करते हुए यह टिप्पणी की थी। उन्होंने कहा था कि सुरक्षित कुंभ हम सबके लिए एक चुनौती है। यह काफी हद तक सच है। महाकुंभ हिंदू धर्म का महत्वपूर्ण आयोजन है। प्रयागराज के अलावा हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में यह आयोजन होता है। हरिद्वार और प्रयागराज में दो महाकुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ भी होता है। प्रयागराज में इससे पूर्व सन् 2013 में महाकुंभ और 2019 में अर्धकुंभ का आयोजन हो चुका है। महाकुंभ मेला मकर संक्रांति से प्रारम्भ होता है, क्योंकि उस समय सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और बृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रांति के इस योग को “महाकुंभ स्नान-योग” भी कहते हैं और इस दिन को विशेष मांगलिक पर्व माना जाता है। कहा जाता है कि पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन ही खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है।
महाकुंभ के आयोजन को लेकर कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं, जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मंथन से प्राप्त अमृत कुंभ से अमृत बूंदें गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इंद्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हें सारा वृतांत सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हें दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए।
अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र ‘जयंत’ अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के निर्देश पर दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ लिया। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में 12 दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक पर कलश से छलक कर अमृत बूंदें गिरी थीं। उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बांटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया।
चूंकि अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। इस कारण कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहां पहुंच नहीं है, ऐसा माना जाता है। जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय महाकुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहां-जहां अमृत बूंद गिरी थी, वहां-वहां महाकुंभ होता है।
600 ई. पू. के बौद्ध लेखों में नदी मेलों का उल्लेख मिलता है। 400 ई.पू. के सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी दूत ने एक मेले को प्रतिवेदित किया, ऐसा कहा जाता है। विभिन्न पुराणों और अन्य प्राचीन मौखिक परम्पराओं पर आधारित पाठों में पृथ्वी पर चार विभिन्न स्थानों पर अमृत गिरने का उल्लेख हुआ है।
महाकुंभ में अखाड़ों के स्नान का भी विशेष महत्व है। सर्वप्रथम आगम अखाड़े की स्थापना हुई और कालांतर में विखंडन होकर अन्य अखाड़े बने। 547 ईसवी में अभान नामक सबसे प्रारम्भिक अखाड़े का लिखित प्रतिवेदन हुआ था। 600 ईसवी में चीनी यात्री ह्यान-सेंग ने प्रयाग में सम्राट हर्ष द्वारा आयोजित महाकुंभ में स्नान किया था। 904 ईस्वी मे निरन्जनी अखाड़े का गठन हुआ था जबकि 1146 ईसवी मे जूना अखाड़े का गठन हुआ। 1398 ईसवी में तैमूर, हिन्दुओं के प्रति सुल्तान की सहिष्णुता के विरुद्ध दिल्ली को ध्वस्त करता है और फिर हरिद्वार मेले की ओर कूच करता है और हजा़रों श्रद्धालुओं का नरसंहार करता है। जिसके तहत 1398 ईसवी में हरिद्वार महाकुंभ नरसंहार को आज भी याद किया जाता है।1565 ईसवी में मधुसूदन सरस्वती द्वारा दसनामी व्यवस्था की गई और लड़ाका इकाइयों का गठन किया गया । 1678 ईसवी मे प्रणामी संप्रदाय के प्रवर्तक श्री प्राणनाथजी को विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक घोषित किया गया ।
1684 ईसवी में फ्रांसीसी यात्री तवेर्निए नें भारत में 12 लाख हिन्दू साधुओं के होने का अनुमान लगाया था।1690 ईसवी में नासिक में शैव और वैष्णव साम्प्रदायों में संघर्ष की कहानी आज भी रोंगटे खड़े करती है, जिसमें 60 हजार लोग मरे थे।1760 ईसवी में शैवों और वैष्णवों के बीच हरिद्वार मेले में संघर्ष के तहत 18 सौ लोगो के मरने का इतिहास है। 1780 ईसवी में ब्रिटिशों द्वारा मठवासी समूहों के शाही स्नान के लिए व्यवस्था की स्थापना हुई। सन 1820 मे हरिद्वार मेले में हुई भगदड़ से 430 लोग मारे गए जबकि 1906 मे ब्रिटिश कलवारी ने साधुओं के बीच मेला में हुई लड़ाई में बीच-बचाव किया ओर अनेकों की जान बचाई। 1954 मे चालीस लाख लोगों अर्थात भारत की उस समय की एक प्रतिशत जनसंख्या ने प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ में भागीदारी की थी। उस समय वहां हुई भगदड़ में कई सौ लोग मरे थे।
सन1989 मे गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने 6 फरवरी के प्रयागराज मेले में डेढ़ करोड़ लोगों की मौजूदगी प्रमाणित की थी, जो कि उस समय तक किसी एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी। जबकि सन 1995 मे इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के “अर्धकुम्भ” के दौरान 30 जनवरी के स्नान दिवस में 2 करोड़ लोगों की उपस्थिति बताई गई थी। सन 1998 मे हरिद्वार महाकुंभ में 5 करोड़ से अधिक श्रद्धालु चार महीनों के दौरान पधारे थे। 14 अप्रैल के दिन एक करोड़ लोगो की उपस्थिति ने सबको चौंका दिया था । सन 2001मे इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के मेले में छह सप्ताहों के दौरान 7 करोड़ श्रद्धालु आने का दावा किया गया था। 24 जनवरी 2001 के दिन 3 करोड़ लोग के महाकुंभ में पहुंचने की बात की गई थी। सन 2003 मे नासिक मेले में मुख्य स्नान दिवस पर 60 लाख लोगों की उपस्थिति महाकुंभ के प्रति व्यापक जन आस्था का प्रमाण है। महाकुंभ में अलौकिकता का बोध लौकिक सुंदरता को देखकर सहज ही हो जाता है, तो आप भी आइए और लगा लीजिए इस महाकुंभ में आस्था की डुबकी जहां श्वेत वस्त्रों में ब्रह्माकुमारीज़ भाई-बहनें राजयोग का ईश्वरीय ज्ञान भी बांट रही है।
(लेखक, विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ के उप कुलपति व वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)