सुनील सिंह
झरिया । भारत में नेताओं द्वारा स्वदेशी अपनाओं देश बचाव का नारा दिया जाता रहा। लेकिन मंच की दहलीज पर दम तोडने को मजबूर है ये नारा। चाइनीज़ लाइटिंग की चमक के बीच स्वदेशी दीपक ( मिट्टी) का रोशनी गुम होता जा रहा है। कुम्हार का घूमता चाक आज भी यह बताता है कि इंसान की जिंदगी भी ऐसे ही घूम रही है. दीपावली में जब हम अपने घरों में दीए जलाते हैं तो सबसे पहले याद उस कुम्हार की आती है, जिसने इन दीयों को तैयार किया।घरों में आज भी घड़ा की अहमियत को समझा जा सकता है।
दीपावली में बच्चों द्वारा सजाए जाने वाले ग्वालिन, मिट्टी के खिलौने, मिट्टी की हांडी, गुल्लक आदि सामानों की अहमियत बरकरार रखने के लिए इन्हें तैयार करने की योजना से जोड़ने को लेकर नई पीढ़ी को कुम्हार के परंपरागत व्यवसाय की ओर आकर्षित करने की कोशिश नाकाम हो गई। झरिया के ऐतिहासिक कहे जाने वाले घनुवाडीह कुम्हार बस्ती आज अपनी बर्बादी का दंश झेल रहा है। कभी कुम्हार बस्ती के लोग दीपावली का समय नजदीक आते ही खुशहाल हो जाते थे ।
बढ़ती महंगाई, दुर्लभ संसाधन बना बाधक:
लेकिन आज इस आउटसोर्सिंग के कारण मिट्टी नहीं मिलने से कुम्हारों को अपनी बर्बादी का सामना करना पड़ रहा है।
बताया जाता है कि 1932 से कुम्हार बस्ती में लोग मिट्टी के काम कर सालों भर जीविका चलाते थे लेकिन इस समय प्रोजेक्ट हो जाने के कारण मिट्टी नहीं मिल पाता जिस कारण कुम्हार के कुमार पट्टी के लोग दूसरे रोजगार में जुट गए हैं लोग जिधर किधर कमाने को मजबूर हैं वही दीपावली को लेकर इक्का-दुक्का ही कुम्हार मिट्टी का काम कर रहे हैं।
उनका कहना है कि पहले मिट्टी मिलता था तो इस दीपावली के समय में 50 से 60 घर के लोग पूरा परिवार मिट्टी के खिलौने दीया आदि बनाने में जुटे रहते थे लेकिन आज आउटसोर्सिंग के कारण आउटसोर्सिंग के कारण मिट्टी नहीं मिल पाता हम लोग दूरदराज चंदनक्यारी से मिट्टी मंगाकर काम कर रहे हैं मिट्टी लाने का किराया एक ट्रैक्टर मिट्टी जिसका मूल्य 3000 से 3500 लगता है जिससे मात्र 10000 ही दिया बन पाते हैं ऐसे में हम लोग के व्यसाय पर आफत आ पड़ी है सरकार से भी हम कुम्हारों को किसी तरह की कोई मदद नही मिल रही।