–कोर्ट में 23 साल की लड़ाई के बाद जमालुद्दीन उर्फ नासिर को मिली राहत
–आतंकवाद से जुड़ा हाई-प्रोफाइल मामला खत्म!
खबर मन्त्र संवाददाता
हजारीबाग। 23 साल… 12 गवाह… 1 हाई-प्रोफाइल केस… और आखिरकार, इंसाफ! हजारीबाग के प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीश रंजीत कुमार की अदालत ने जमालुद्दीन उर्फ नासिर को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया है। वर्ष 2002 में नासिर पर लश्कर-ए-तैयबा के दो खूंखार आतंकियों को शरण देने का आरोप लगा था। उन पर हजारीबाग के खिरगांव इलाके में आतंकियों को किराए पर कमरा दिलाने का आरोप था। मगर 23 साल चली इस कानूनी जंग के बाद अब अदालत ने नासिर को निर्दोष करार दे दिया है। कोर्ट के फैसले के बाद उनके परिवार ने राहत की सांस ली और खुशी जाहिर की।
कैसे हिला था हजारीबाग और कोलकाता?
यह कहानी 22 जनवरी 2002 से शुरू होती है, जब कोलकाता के अमेरिकन इंफॉर्मेशन सेंटर पर आतंकी हमला हुआ। इस हमले को अंजाम देने के बाद दो आतंकी हजारीबाग के खिरगांव इलाके में आकर छिप गए। मगर भारतीय सुरक्षा एजेंसियों ने उनकी लोकेशन ट्रैक कर ली। इसके बाद, दिल्ली पुलिस और हजारीबाग पुलिस की संयुक्त टीम ने इलाके को घेर लिया। पुलिस को देखते ही आतंकियों ने गोलियां चलानी शुरू कर दी। लेकिन भारतीय सुरक्षा बलों की जवाबी कार्रवाई में दोनों आतंकी मारे गए।
मारे गए आतंकियों की पहचान मो. इदरीस उर्फ वाजिद उर्फ जाहिद (पुत्र अब्दुल मजीद) और सलीम के रूप में हुई थी। इस केस में जांच के दौरान नासिर का नाम सामने आया, जिन पर इन आतंकियों को पनाह देने का आरोप लगा।
23 साल की सुनवाई और ऐतिहासिक फैसला
सदर थाना प्रभारी कौशल्यानंद चौधरी के बयान पर आईपीसी की धारा 121, 121A, 186, 353, 307, 120B और आर्म्स एक्ट की धारा 25B, 26, 27 तथा विदेशी अधिनियम की धारा 13 और 14 के तहत मामला दर्ज किया गया। मुकदमे के दौरान 12 गवाहों के बयान दर्ज हुए। इस दौरान बचाव पक्ष के अधिवक्ता अजीत कुमार ने अदालत में दलील दी कि नासिर के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं है और यह मामला सिर्फ संदेह के आधार पर खड़ा किया गया था। अंततः, 23 साल की लंबी सुनवाई के बाद अदालत ने साक्ष्य के अभाव में नासिर को बरी कर दिया। फिलहाल, नासिर 2015 से कोलकाता की एक जेल में बंद हैं, लेकिन अब इस फैसले के बाद उनकी रिहाई का रास्ता साफ हो गया है।
इस फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। अगर नासिर निर्दोष थे, तो उन्हें 23 साल तक जेल में क्यों रखा गया? क्या इस लंबी कानूनी प्रक्रिया ने उनकी ज़िंदगी के अमूल्य वर्षों को बेवजह छीन लिया? या फिर ये न्याय की जीत है, भले ही देर से मिला हो?जो भी हो, इस फैसले ने हजारीबाग की फिज़ा में एक नई बहस छेड़ दी है।